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50 साल से 50 लाख से ज्यादा का खजाना कर रहा गांधी परिवार के दावे का इंतजार

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पैत्रक सम्पति के विवादों में रिश्तों का क़त्ल होते आप देखते ही होंगे पर एक ऐसी सम्पन्ति गाँधी परिवार की बीते 50 सालों से उनके दावे का इन्तेजार कर रही है की गाँधी परिवार का कोई वारिस दावा करें और वह सम्पति उन्हें दे दी जाए,उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले का जिला कोषागार, जहां गांधी परिवार की एक अमानत राखी है। वो भी करीब 50 साल तक यानी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय से। सरकारी कर्मचारी इस खजाने को उनसे लेने के लिए गांधी परिवार के राजी होने का इंतजार कर रहे हैं। हालांकि उस तरफ से कभी कोई दावा नहीं किया गया। अब जिला प्रशासन करे तो क्या।

50 साल से 50 लाख से ज्यादा का खजाना कर रहा गांधी परिवार के दावे का इंतजार
Source : Social Media

बिजनौर में सरकारी कर्मचारियों द्वारा एक अमानत  के रूप में संरक्षित किया जा रहा गांधी परिवार का यह खजाना कैसे पहुंचा, यह जानने के लिए आपको 1972 के दौर में वापस जाना होगा। प्रधानमंत्री के रूप में यह इंदिरा का दूसरा कार्यकाल था। वह कालागढ़ बांध, जो अब उत्तराखंड में है और रामगंगा बांध के नाम से जाना जाता है, के काम की समीक्षा करने के लिए बिजनौर पहुंची थीं।

कालागढ़ बांध 1961 में शुरू की गई स्वतंत्र भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक थी। उस समय यह एशिया का सबसे बड़ा मिट्टी का बांध था। इस लिहाज से इसकी जरूरत थी, क्योंकि इससे मैदानी इलाकों में तेजी से बहने वाली पहाड़ी नदी के प्रभाव को नियंत्रित करने में मदद मिलती। इसके अलावा बांध बनने से लोगों को ऊर्जा का भी लाभ मिलेगा। काम में हो रही देरी को देख इंदिरा बिजनौर के सीमावर्ती इलाके में पहुंच गईं। परियोजना का एक हिस्सा बिजनौर जिले की सीमा के पास है।

ये वो दौर था जब इंदिरा गांधी की लोकप्रियता काफी ज्यादा थी। बांध के काम में लगे मजदूर भी उन्हें अपने बीच देखकर हैरान रह गए और फिर आम जनता का तो कहना ही क्या। बेहद उत्साहित। उनकी एक झलक पाने के लिए लोगों की उत्सुकता अलग ही थी। इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना के भावी लाभ भी उनके उत्साह में वृद्धि कर रहे थे। जल्द ही, उन्हें चांदी से तौलने की योजना बनाई गई। लोगों के अपार प्यार के आगे इंदिरा भी ना नहीं कह सकीं।

बड़े पैमाने पर जल्दबाजी में व्यवस्था की गई थी। एक पलड़े पर इंदिरा बैठी थीं और दूसरे पलड़े पर चांदी और अन्य आभूषण रखे हुए थे। कुछ चांदी की ईंटें भी थीं। जिले के कांग्रेस कार्यकर्ता भी दान कर रहे थे। उस वक्त इंदिरा का वजन करीब 64 किलो था, लेकिन जनता रुकने को तैयार नही थी। दूसरे पलड़े में चांदी के आभूषण रखे हुए थे। जब दूसरे पलड़े पर वजन इतना भारी हो गया कि जिस पलड़े में इंदिरा बैठी थीं, वह जमीन से उठ गया, तभी लोगों ने अपनी भावनाओं पर काबू पाया। कहा जाता है कि दूसरे पलड़े की चांदी का वजन 73 किलो के करीब था।

इस अपार प्यार से अभिभूत इंदिरा ने लोगों का तहे दिल से शुक्रिया अदा किया, लेकिन वह इस खजाने को अपने साथ नहीं ले गईं। जिला प्रशासन ने इंदिरा गांधी की आस्था को ध्यान में रखते हुए इस खजाने को बिजनौर की तिजोरी में सीलबंद बक्से में जमा करा दिया. इंदिरा गांधी ने अपने जीवनकाल में कभी भी इन खजानों को अपने पास भेजने के लिए नहीं कहा और न ही उन्होंने इन्हें सरकारी खजाने में दान करने की बात कही। उनकी मृत्यु के बाद भी गांधी परिवार में से किसी ने भी इस खजाने पर दावा नहीं किया। अब ऐसे में इस खजाने को अब तक सरकारी सिस्टम संभाल कर रखे हुए है. वह इंतजार कर रहा है कि कोई गांधी परिवार दावा करे ताकि उन्हें यह दिया जा सके ।

वर्तमान में बिजनौर में तैनात मुख्य कोषाधिकारी सूरज सिंह का कहना है कि यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निजी संपत्ति है. यह केवल उनके परिवार के सदस्यों को ही दिया जा सकता है। लेकिन गांधी परिवार ने इतने सालों में कभी भी इस पर मालिकाना हक का दावा नहीं किया। इस अमानत को क्या करना है यह भी जिला स्तर से तय नहीं हो पा रहा है। सरकार कुछ स्पष्ट निर्देश दे तो ही रास्ता निकल सकता है।

जानकारों का कहना है कि जब भी प्रधानमंत्री या कोई वरिष्ठ अधिकारी किसी जगह का दौरा करते हैं तो उन्हें बहुत कुछ भेंट किया जाता है। चूंकि यह उपहार व्यक्तिगत है, इसलिए इसे सरकार की संपत्ति नहीं माना जा सकता है। ऐसे में यह सरकार की संपत्ति भी नहीं हो सकता है। एक बार बिजनौर के जिला कोषागार ने भी इस संबंध में रिजर्व बैंक को पत्र लिखा था कि यह कोषागार आरबीआई को सौंप दिया जाए. लेकिन, तब रिजर्व बैंक ने इसे निजी संपत्ति मानने से इनकार कर दिया था।

खजाने को सील किए जाने के बाद से इन पेटियों को नहीं खोला गया है। हर साल संदूकों  की जाँच की जाती है। हर साल संदूको की गिनती होती है और एक नया नंबर आवंटित किया जाता है और फिर अगले वर्ष तक प्रतीक्षा करें। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी की निजी संपत्ति को एक वर्ष से अधिक समय तक जिला कोषागार में नहीं रखा जा सकता है। हर साल एक नया नंबर आवंटित किया जाता है क्योंकि संपत्ति के दावेदार नहीं आते हैं और सरकार से कोई अधिसूचना प्राप्त नहीं होती है। इन तिजोरियों को न खोलने का एक बड़ा कारण देनदारी है। इसमें क्या है जिम्मेदारी सील करने वाले तत्कालीन अधिकारियों की।

क्या कोषागार में माल रखने के?

कोषागार एक ऐसी जगह है जहां कीमती सामान रखा जाता है। क़ीमती सामान रखने और लेने के लिए पूरी सरकारी प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है। जैसे कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के नजीबाबाद में खुदाई के दौरान कुछ सोने के सिक्के मिले थे। तत्काल उन्हें कोषागार में रख दिया गया। बाद में सरकार ने आदेश दिया और उन्हें लखनऊ भेज दिया गया। आमतौर पर खुदाई में मिली ऐतिहासिक सामग्री या चुनाव के दौरान जब्त की गई संपत्तियों को तिजोरी में रखा जाता है। जब संपत्ति का मालिक उसे संबंधित दस्तावेज दिखाता है, तो सत्यापन के बाद उसे सामान वापस कर दिया जाता है। बिजनौर के मामले में दो ही स्थिति हो सकती है या तो सरकार अपने आदेश से उसे सरकारी संपत्ति मान ले या गांधी परिवार अपना हक दिखाकर ले ले।

इंदिरा गांधी को चांदी या आभूषणों में तौले जाने का यह पहला मामला नहीं है।बात 1962 की है जब भारत-चीन युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी ने अपने सारे जेवर दान कर दिए थे। इंदिरा गाँधी के इस दान का असर इतना बड़ा हुआ कि जनता उनकी आवभगत में अपना सब दान करने को तैयार हो जाती।

ऐसे ही एक बार वर्ष 1965 में इंदिरा गाँधी उत्तरप्रदेश के महोबा ज़िले के मुडारी गांव पहुंची थीं। वहाँ भी उन्होंने सेना के लिए मदद मांगी थी। जनता ने उन्हें तब भी जेवरों में तौल दिया था। बाद में सभी अभूषण राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जमा करवाए गए थे।

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