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उमरार नदी के किनारे पैदा हुई ‘उमरिया’ की पढ़िए आत्मगाथा : मैं उमरिया हूँ

पढ़िए उमरिया का 144 वर्ष का ईतिहास

बीएस परिहार (रिटायर्ड बैंक मैनेजर) : मैं ‘उमरिया’ हूँ । उमरार नदी के किनारे पैदा हुई, सो लोगों ने मुझे प्यार से ‘उमरिया’ कहना शुरू कर दिया । मुद्दतों बाद तुमसे गुफ़्तगू हो रही है । अब तो मैं बहुत सयानी हो गई । बीते समय की शानदार बात है।  जब मैं छोटी थी, उन्हीं दिनों रीवा रियासत में महाराजा रघुराज सिंह जी के महल में व्येंकटरमण सिंह जी का जन्म हुआ । उनके पिता 1880 में नहीं रहे । फिर व्येंकटरमण सिंह जी का राज्याभिषेक हो गया, वो महाराजा हो गए । मेरा उनका साथ 1875 से 1918 तक रहा । मुझे बचपन से उनका भरपूर लाड़ मिला  उनके राज्य में मैं खूब बढ़ी ।

बात 1885 की है  ‘रीवा कोल फील्ड’ माइंस खुल गई । अब माइंस खुल गई, तो कोयले को ले जाने के लिए 1886 में बंगाल-नागपुर रेल (BNR) लाइन कटनी से उमरिया तक आ गई, जो ‘कटनी उमरिया प्रोविंशियल रेलवे’ कहलाई । रफ़्ता-रफ़्ता मैं भी उनके साथ बड़ी होती गई । सौगात मिलती गई । वर्ष 1901 चपड़ा कारखाना,पीली कोठी, 1905 तहसील बाँधवगढ़, 1908 टेलीग्राफ,1909  लेदर फैक्ट्री, खूब तो दिया । पीतल की तोप, गत्ते कागज का कारखाना । सब को चलाने के लिए अपने रीवा से पहले मुझे बिजली दी ।

मालूम, तब भाप के इंजिन से जनरेटर चलते और बिजली पैदा होती । अब बात 1918 की  महाराज 42 साल के थे । एकादशी का दिन था । इन्फ्लूएंजा बीमारी से राधे-कृष्ण राधे-कृष्ण कहते कहते दिन को 12 बजे मेरा साथ छोड़कर संसार से चले गए । सब कुछ सूना हो गया । तब 16 साल के बेटे गुलाब सिंह जी का राज्याभिषेक हुआ । वो  महाराजा हो गए । नाबालिग थे, 4 साल तक रेसीडेंसी की कौंसिल राजपाठ का काम देखती रही ।

महाराजा गुलाब सिंह जी  के साथ मेरा मजबूत रिश्ता ताउम्र  रहा । वर्ष 1920 में वो 18 साल के थे, तब मेरी किस्मत चमक गई । मुझे सौगात में सज्जन स्कूल, नगरपालिका, राजस्व, वन, पुलिस, लोकनिर्माण ऑफिस मिल गए । अपने लिए भी सगरा मंदिर के पास राजभवन  बनवाया । खलेसर नदी पार से लोग आते-जाते थे, बरसात के दिनों बड़ी दिक्कत होती थी । नदी में लोहे की शहतीरों का ‘टायर ब्रिज’ बना । जॉन टायर कॉलरी मैनेजर और नगरपालिका के चेयरमेन थे । पुल 8 साल में बनकर तैयार हुआ ।

अरे, अपना वैभव बताते- बताते मैं खास बात तो बताना ही भूल गई । पहले  वाले महाराजा व्येंकटरमण सिंह जी ने रीवा में लोक-मनोरंजन के लिए ‘बघेलखण्ड नाटक मंडली’ खुलवाई । बड़े-बड़े पहलवानों को बुलवाया । गामा पहलवान को किले में हमेशा के लिए रहने दिया । उनका राज्य अमरकंटक तक रहा । वहाँ 15 दिनों का मेला वो खुद रहकर देखा करते थे । अब 20 साल पहले, याने कि 1901 की बात है । तब पहली बार यहाँ भी ‘रामलीला’ उन्होंने शुरू करवा दी । लाल हरवंश सिंह जी को रामलीला का संस्थापक बना दिया गया । शुरुवात थी । आसपास के लोगों बड़ा में उत्साह था ।

मेलमिलाप था । भेद-भाव नही था । सभी त्योहार जलसे मिलकर मनाते थे । सबके पास काम था । माइंस, फैक्ट्री, कारखानों में काम था । व्यापार, बाजार बड़ा मजबूत था । बड़ी-बड़ी आढत थी । तब के व्यापारी बड़े महाजन थे । नदी पानी से लबालब थी । चारो तरफ हरियाली, जंगल भरपूर थे । वनोपज का काम, खेती भी मजबूत थी । आने-जाने के लिए BNR ट्रेन थी । रामलीला के लिए राज्य से धन मिलता था। कस्बे के बड़े व्यापारी सेठ बुद्धमल भण्डारी, हीरालाल, जगन प्रसाद गोयनका, जगत नारायण सरावगी,भैरोंलाल हुआ करते थे ।

माइंस के वर्कर कैम्प और खलेसर में रहते थे । वो दिल खोलकर सहयोग करते थे । बिजली पूरे कस्बे में नही थी, केवल माइंस के लिए उसके आसपास ही थी । तब रामलीला दिन में होती थी, पर व्यापारी रामलीला नही देख पाते थे । बहरा मैदान के पास  खेरमाता मंदिर में व्यापारियों ने तय किया रामलीला रात में हो और ‘धर्मादा कर’ लगाकर राशि इकठ्ठी की जाए । फिर क्या, मशाल जलने लगी । रात में रामलीला होने लगी । लाल हरवंश सिंह जी ने अपने बहरा की कई एकड़ जमीन रामलीला मैदान के लिए दान कर दी । तब यहाँ बाजार भी लगता था । इस तरह एक अच्छे माहौल में रामलीला की शुरुआत हो गई ।

आसपास सरसवाही, खलेसर और पिपरिया के लोगों ने अपनी रोजी रोटी के साथ-साथ खूब वक़्त निकाला । बड़ी मेहनत की । मंडली भी बनती गई । सरसवाही की लाल रणदमन सिंह जी की  रामलीला मंडली बड़ी मशहूर हुई । रणदमनसिंह रामलीला के संचालक थे । वो तबले में संगत देते । व्यास पर  उदयभान सिंह तखतपुर वाले, गजब की जोड़ी रही । दिलदार सिंह, मेंदनी सिंह, बृजबिहारी सिंह, ईश्वरी प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद बरबसपुर वाले, शारदा प्रसाद पाण्डेय खेरवा वाले, रामप्रमोद तिवारी नरोजाबाद वाले, रामकुमार भरौला वाले ये सब मंडली के कलाकार थे । रामेश्वर प्रसाद रावण और शारदा प्रसाद पांडेय लक्ष्मण का अभिनय करते थे । पंडित सीतासरण जी पुराना पड़ाव वाले, लाल चन्द्रभान सिंह जी पिपरिया वाले संगीत में संगत देते थे । ये रामलीला बड़ी मशहूर हुई । दूर-दूर रामलीला मंचन के लिए जाती थी । लोरमी कवर्धा छत्तीसगढ़, कई बार गयी ।

सरसवाही की रामलीला मंडली खजूरीताल से पहले की थी । रामलीला की शुरुआत क्वांर में किरीट पूजन के साथ बरबसपुर में होती । फिर मंडली अगले दिन से बहरा मैदान में दशहरा के दूसरे दिन भरत मिलाप, राम राज्याभिषेक तक रुकती थी । राम जन्म, बाललीला, मुनि आगमन, ताड़का वध, आहिल्या उद्धार, नगर दर्शन, पुष्प वाटिका, रावण बाड़ासुर संवाद, धनुषयज्ञ, धनुषभंग, लक्ष्मण – परशुराम संवाद, श्रीराम विवाह, रामकलेवा, शोभायात्रा, श्री रामवन गमन, केवट संवाद, दशरथ मरण, सूर्णपंखा नासिका भंग, सीता हरण, राम सुग्रीव मित्रता, बाली वध, लंका दहन, विभीषण शरणागति, सेतुबन्ध रामेश्वरम की स्थापना, अंगद रावण संवाद, लक्ष्मण शक्ति, कुम्भकर्ण वध, मेघनाथ वध, सुलोचना विलाप, अहिरावण वध, रावण वध, दशहरा पर्व, भरत मिलाप, अंतिम दिन राम राज्याभिषेक के साथ रामलीला का विसर्जन होता था । राम विवाह के दिन को मैं कभी नही भूल पाई । तब बारात रमपुरी में पंडित लालमन पांडेय जी के यहाँ रुकती । उनका घर जनवास बनता । 400-500 बाराती होते । खूब स्वागत सत्कार होता । उनके यहाँ बारात कई सालों तक गई । वो नही रहे, फिर सेठ रामस्वरूप गोयनका का घर जनवास बना । तब से अब तक राम जी की बारात उनके घर जाती है । खूब आव-भगत के साथ बिदाई होती है । अब उनके बेटे  नारायण गोयनका  परम्परा को निभा रहे हैं । खलेसर में मंडली बनी ।

नदी के उस पार पीपल नीम के पेड़ के नीचे रामलीला होती थी । खलेसर के पंडित ठाकुर रामलीला में अभिनय करते । चौराहे में बाबू सोनी और पंडित अर्जुनदास शर्मा ने सिंधु सेवा मंडल रामलीला चलाई । सभी मंडली बहरा मैदान में अपना मंचन करती  । पहले के कलाकारों में हनुमान प्रसाद सेन एवं छोटे लाल सेन ‘स्नेही’ के हास्य-प्रहसन, पंडित अवध प्रसाद द्विवेदी पुराना पड़ाव वाले, लाल मदनगोपाल सिंह पिपरिया वाले, संगीत में संगत देते ।

        वर्ष 1983 की बात है, बाबू साहब के समय महाराजा मार्तण्ड सिंह जी रामलीला में उमरिया आये । रामलीला मंच बहरा का नाम उन्होंने ‘श्री रघुराज मानस कला मंदिर’ रख दिया । अब तो और धूमधाम से लीला होने लगी । रामलीला के बाद रासलीला भी होती । वर्ष 2000 रामलीला 100 साल की हो गई । अयोध्या, काशी, वृंदावन, ओडिशा, खजुरीताल की रामलीला बहरा आयी । रामलीला की  राष्ट्रीय प्रतियोगिता हुई । सबको अलग-अलग प्रसंग मंचन के लिए मिले । खजुरीताल को राम राज्याभिषेक का प्रसंग मिला । मनमोहक मंचन  रहा । ओडिशा वाले उड़िया भाषा मे मंचन किये । सबने एक से बढ़कर एक मंचन किये । पहले नम्बर में वृंदावन की रामलीला रही । अगले साल वृंदावन की रामलीला फिर बहरा आयी । रफ़्ता-रफ़्ता रामलीला की उमर  122 साल हो गई ।

        अब लोगों का मोह कम होने लगा । वक़्त नही है । जाने क्या हो गया ? फिर भी मैं व्यथित नही हूँ । परंपराएं अभी भी मेरे साथ हैं । गीता की बात कहकर मैं अब बिदा हो रही हूँ–

“नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।

न चैनं क्लेदयन्यापापो न शोषयति मारुतः ।।”  (श्री कृष्ण)

आत्मगाथा ‘मैं उमरिया हूँ’

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